कितना बदल गया इंसान
कितना बदल गया इंसान
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कभी कभी ऐसा लगता है
के अजनबियों के शहर में, मैं एक अजनबी
या शून्य में ढूंढता शब्दों को कोई एक कवि।
हो परेशान तो नाराज़गी जाहिर करूँ किसको
हो जाऊं खुश तो बताना चाहूँ सबको
भीड़ में भी तन्हा तन्हा पाऊं खुद को
कोई कहे प्यार होगया
कोई कहे बीमार हो गया
दिल की बात कह ना पाऊं आपको।
गलत ना समझना मुझको,
ये कोई प्यार का मामला नहीं
भटक गया हूँ रास्ता किसी अनजान बस्ती में,
मुखोटे लगाए लोग भरी महफिल में,
मैं कोई पागल तो नहीं।
कितनी अलग है यहां की हवाएँ
चारों तरफ शोर है फिर भी सन्नाटे
दिलों में बसी चोर है ऊपर से झूठी दुआएँ।
ये कितना बदल गया इंसान
क्या सोच बनाया था भगवान
और क्या से क्या बन गया ये इंसान।