क्यूँ
क्यूँ
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बात यह नहीं कि अँधेरा है या उजाला,
बात चलते रहने की है।
दौड़ना तो ठीक है,
पर क्यूँ?
अब जब रंग एक सरीखे लगने ही लगे हैं,
तो आरोप क्यूँ?
बात अगर जीने की ही है,
तो स्वयं से बेईमानी क्यूँ?
और बात अगर विश्वास की मजबूती की है,
तो पाखंड क्यूँ?
कहीं बात धर्म की तो नहीं,
तो बंटवारा क्यूँ?
अगर कहीं बात मदद की ही है,
तो दिखावा क्यूँ?
बात यह नहीं की अँधेरा है या उजाला
बात चलते रहने की है, बात चलते रहने की है।