दौर
दौर
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खुद से यूँ ख़फ़ा नहीं रहा कीजे,
वक्त जैसा भी हो जाया ना कीजे।
सुबह से रात तक खुद से उसूलन लड़ना,
फ़िर कोई जख़्म नया ना कीजे।
घर में जो कुछ भी है आपका ही तो है,
बेवज़ह उनकी क़ीमतें रोज़ ना आका कीजे।
मुश्किलें कम तो नहीं हैं रोज़ मर्रा की,
मेहमान हैं वे, हँसकर उन्हें विदा कीजे।
मौसम ही तो है, कभी सर्दी कभी बारिश होगी ही,
पलों को संदली बनादे, ऐसी नयी ग़ज़ल कहा कीजे।