मैं भूली नहीं हूं
मैं भूली नहीं हूं
बचपन में मैं मां-बाप से दूर रहतीं थीं,
गैरों की बातों को चुपचाप सहती थीं।
वो कड़वी बातें,अपनों की मुलाकातें,
मैं कुछ भी भूली नहीं हूं।
अचानक से मेरी दुनिया का छिन जाना,
अपनों के बजाय कुछ गैरों से मिल जाना।
छुप कर रोना और चेहरे पे हंसी का होना,
मैं कुछ भी भूली नहीं हूं।
लोगों के भीड़ में होके अकेला होना,
खुद से बातें करके खुद में ही खोना।
चेहरों का दोगलापन और मेरा बचपन,
मैं कुछ भी भूली नहीं हूं।
कुछ दोस्तों के करीब एहसास था,
जो बना देता था मुझे खास था।
उनके वादे और जिंदगी के इरादे,
मैं कुछ भी भूली नहीं हूं।
याद है आज भी एक सपना था,
जो लाखों के चीजों में अपना था।
दिन रात जागना और दुवाएं मांगना,
मैं भटकी थी मगर भूली नहीं हूं।
सपना है लाखों की भीड़ होगी,
जमाना होगा मेरा दीवानगी होगी।
सपनों का कत्ल और मुश्किल सा हल,
सब याद है मुझे मैंं कुछ भूली नहीं हूं।