आईना
आईना
मैंने ना कभी भी, नज़ारों की बात की..
ना चॉंद, ना सूरज, ना सितारों की बात की..
जब से देखा उसको, उस हसीन की क़सम..
मैंने तो बस लुटे हुए, करारों की बात की..
जब भी कही अपनी, तो बात रखी सीधी..
मैंने ना कभी कोई, इशारों की बात की..
मॉंगा जब भी तुझसे, हमनफ़स इक ही मॉंगा..
मैंने ना ख़ुदा तुझसे, हज़ारों की बात की..
उजड़े विराँ चमन की, चाहत किसे यहॉं पर..?
मैंने तो हमेशा बसंतों, बहारों की बात की..
ना तलवार उठायी मैंने, ना जंग छेड़नी चाही..
मैंने क़लम उठाकर, बस विचारों की बात की..
भीड़ काफ़ी थी यहॉं पे, अब दो-चार बचे हैं..
जिस दिन से बंद मैंने, तरफ़दारों की बात की..
रंगों पे नाज़ करती, दीवारें आज ख़फ़ा है..
आईना बन बस मैंने, दरारों की बात की..