“मयखाना”
“मयखाना”
शाम ढलते ही दिए जलते हैं,
आग लगती है सीने में,
कदम पड़ते हैं मयखाने में,
जाम तो हम यूँ भी उठा लेते हैं।
पर साकी के होठों से
पीने का मजा कुछ और ही है,
शराब तो हम उन्हीं पी जाते हैं,
पर उसकी आँखों जो पिला दी
वो कुछ और ही है।
वैसे तो हम सीधे-सीधे जाते हैं
अपने ही घर,
पर लड़खड़ाते जाने का मजा
कुछ और ही है उसके दर।
अब ना है हमें दुनिया से कोई खता
ना ही कोइ डर,
सुबह के भूले हम शाम को
जाते हैं मयखाने पर।