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'रतजगे में चाँद'

'रतजगे में चाँद'

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आज रविवार था

छुट्टी का दिन,

एकाध बार

किन्हीं ज़रूरी कामों से

बाहर गया

और फिर पढ़ने-लिखने के

अपने कारोबार में

लगा रहा।

समय पर दिन का भोजन किया

और जहाँ थोड़ी सी

झपकी का अंदेशा था

वहाँ देर शाम तक

सोता रहा।

...................

 

और अब यह क्या

रात में

आँखों से नींद ही गायब है।

सोमवार की भोर हो चुकी है

दीवार-घड़ी ने साढ़े चार बजा डाले हैं

मगर आज आँखों ने शायद

रतजगा करने की ही ठान ली है।

बाहर बरामदे में कई बार झाँक आया

खिड़की के छज्जे पर बैठा कबूतर

आवाज़ करने पर भी

न फड़फड़ाया और न भागा।

संभवतः वह भी गहरी नींद में हो

दोबारा ऐसी हिमाक़त करने से

ख़ुद को रोक लिया

खिड़की के छज्जे पर

चाँदनी-नहाई रात में यूँ बैठे-बैठे

वह क्या मज़े की नींद ले रहा है।

इस समय किसी अंदेशे का

उसे कोई खटका भी तो नहीं है,

आखिर तभी तो वह

दिन की तरह चौकन्ना नहीं है।

मगर उसे लेकर

एक ख़याल और आता है,

क्या जाने अलसाई रात में

बिखरते ओस की बूँदों ने

उसके पंखों को भी

भारी कर दिया हो।

 

आज ही अख़बार में पढ़ा था

कि आज चाँद

धरती के कुछ अधिक करीब रहेगा

और इसलिऐ कुछ अधिक बड़ा

और चमकीला दिखेगा।

बरामदे में लगी जाली को हटाकर

कई बार चाँद को देख आया

रात के इस बीतते पहर में

उसे देखने से प्रीतिकर

और क्या हो सकता है!

चाँद भी शुरू-शुरू में

पूरब की तरफ था।

अपनी गति से

क्रमशः पश्चिम की तरफ़ होता गया

बीच में एकाध बार तो

गर्दन टेढ़ी कर उसे देख लिया

मगर अब वह इतना

पश्चिम जा चुका है कि

उसे अपने बरामदे से

नहीं देख सकता।

चार-मंज़िला फ्लैटों की

इस सोसायटी में

दीवारें भी तो

अमृत-पान करने के मूड में

रास्ते में आ खड़ी होती हैं।

चाँद को तकने के लिए

अब छत पर ही जाना

एकमात्र विकल्प है।

मगर फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर

पहली मंज़िल से चौथी मंज़िल पर

इस घड़ी छत पर जाना....

कौन मानेगा कि,

चाँद मुझे खींचकर

छत पर लाया है

लोग तो कुछ और ही

अर्थ लगाऐंगे

और लोग ही क्यों

पत्नी को भी मुझपर

शक हो सकता है

और जाने कितने निर्दोष चेहरे

अचानक से उसे

कुलक्षणी लगने लग सकते हैं।

 

यह रतजगा भी

कितना खतरनाक है।

तभी सबसे मुनासिब यही लगा

कि इस रतजगे को

कविता में दर्ज़ कर लिया जाऐ

चाँदनी की इस शीतलता को

कविता के कटोरे में

उतार ली जाऐ।

...........

 


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