मुक्तक - रूह सिसकती रही
मुक्तक - रूह सिसकती रही
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ज़िस्म छलनी होता गया, रूह सिसकती रही।
लम्हा - लम्हा कलियाँ, , टूटकर बिखरती रही ।।
आज इंसा कैसा जालिम , दरिन्दा हो गया ।
हवस की आग में बेबस हया पिघलती रही।।