हृदय पुकार
हृदय पुकार
हो रहा जगत सब व्याधि युक्त
है लोभ व्याप्त चहुँ ओर मुक्त
हो अवनि अधीर विकल टोहे
अब कौन जगाये भाग्य सुप्त ?
अवतरो! ईश कब आओगे?
हित मम संताप मिटाने को
है अत्याधिक ये पीर प्रभो!
अब आओ धीर बंधाने को।
हूँ त्रसित बहुत अब पीड़ा से
अब धीर नहीं बंधने पाता
करुणा मधु रस बरसा जाओ
कर बद्ध अनुग्रह हे दाता!
अज्ञान अँधेरा व्याप्त हुआ
क्यों मेरे हृदय दुलारों में?
क्यों घृणा,राग औ द्वेष बसे?
हिय कोर प्रिय मम प्यारों में।
लख तमस निज अजिर क्षुब्ध हुए
नेत्रों से बहता लहू प्रचंड
अखंड ये मेरी देह प्रभो!
है मलिन आज हो खंड-खंड।
अस्तित्व ही अपना खो बैठूँ
ऐसा भी अनर्थ न होने दो
जनहित खातिर करुणाकर अब
अवतरण स्वयं का होने दो।