अंधेरों को कोसते लम्हे !
अंधेरों को कोसते लम्हे !
जिस तरह किसी,
मुफ़लिस की तकदीर का,
सितारा बहुत दूर कहीं अंधेरी,
राहों में भटक कर दम तोड़ रहा है;
शाम होते ही बस्ती,
का चप्पा-चप्पा घुप्प,
अंधेरों में डूब जाता है;
ऐसे में सुनने की,
ताकत से सरगोशियां,
करते हुए सन्नाटें है, और
अंधेरों को कोसते हुए लम्हे हैं;
और दूर से आती हुई,
किसी बेबस की पुकार,
जब एहसासों से टकराती है;
तब थरथराते हुए,
वज़ूद दुआओं में लीन,
होकर ख़ुदा को आवाज़ देते है !