व्यंग्य --- सीढियाँ बनते साँप
व्यंग्य --- सीढियाँ बनते साँप
व्यंग्य ------- सीढियाँ बनते साँप
हैरत होती है कि ; ------साँप ! आखिर क्यों मौन हैं ?
जैसा कि; आप जानते ही हैं ---------
साँप और सीढी का खेल सनातन है
: आदम सभ्यता के समानान्तर
यह परवान चढ़ा है.
यूं भी कहा जा सकता है कि;
आदिम ------- बर्बरता ने इसे
बे--रहमी से गढ़ा है.
----- "विकास कभी व्यक्तिपरक नहीं होता
यह सामूहिक अवधारणा का नाम है "
व्यक्तियों ने विकास को ढोया है -------
यह सरासर बेतुका बयान है.
आप ! ---------------
इतिहास उठाकर देखिए --------
निरपेक्ष नजरिए से सोचिए
मानव : विकास के लिए ;
सीढियाँ बुनता रहा
सफलता के सोपान चढता रहा
हर सीढी के मुहाने पर ; साँप रोपता रहा.
साँप !
जिनका अनिश्चित होता है ; नाप
जिन्हें ; नहीं पाते आप भाँप
अचानक ; फ़न फैलाए
आपकी राह में खड़े होते हैं
अमूमन ; आपकी सफलता से बड़े होते हैं. .
--------------- आप इन्हें कुचल नहीं पाते
--------------- भागना भी ये असंभव बनाते
क्योंकि ;आपकी सफलता के सूत्रधार ------------अकेले आप हैं
लेकिन ; आपके पराभव के अनेकों -------------- गवाह हैं .
आप अपनी ही चुनी सीढी की बगल में
औंधे मुँह "ध-ड़ा-म " से गिरे पडे होते हैं
लोग प्रसन्नमुख तालियाँ पीट रहे होते हैं . .
बेशक !
"शह और मात " के इस खेल में
साँप और सीढियों के मध्य
एक परिचित समन्वय होता है ,
सीढियाँ : साँप ऊगलती हैं ;
साँप : सीढ़ियाँ बोता है.
लेकिन ; ---------------
वास्तविक जीवन में ----------------
-------यथार्थ के धरातल पर----------
साँप असंख्य हैं ............. सीढियाँ कम
चढना कठिन है........... फिसलना सुगम.
आप चंद सीढियाँ चढ के देखिए !
लोग टाँग खींच लेंगे
साँप निगलें; उससे पहिले ही,
जबडों में भींच लेंगे
आप जितना छटपटायेंगे--------
गहरा धँसते जायेंगे
शीर्ष से ठीक पहिले स्वयं को;
आरम्भ-बिन्दु पर पायेंगे .
हाँ ; लम्बे ' सं..घ...र्ष ' के बाद
मनुष्य की "विशेष प्रजाति " ने
साँपों की पूँछ पकड कर ;
ऊपर चढ़ना सीख लिया है
सीढ़ियों को---------- साँपों की;
बगल में खींच लिया है
अपने मानस को ------------------
अबूझ---ज़हर से सींच लिया है.
अब ; "वे" जब भी सीढियों से फिसलते हैं
----- साँपों के सहारे ऊपर चढ़ने लगते हैं .
हैरत होती है कि ; ------------------
साँप ! आखिर क्यों मौन हैं ?
हम----आप सभी जानते हैं कि;
' वे ' कौन हैं ???
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