ममता की छांव
ममता की छांव
एक वो वक़्त था, जब तुम्हारा हाथ पकड़ के चलती थी मेरी माँ
गिर न जाऊँ, कदमों से कदम मिलाती थी मेरी माँ
खाना तो मैं जानती थी, पर तेरे हाथों के निवाले में मीठा सा स्वाद था मेरी माँ
उस समय तो बेफिक्र सोते थे, अब तो एक आवाज़ से उठ जाती हूँ मैं माँ
खेल खेल के घर बिखरा देते थे, अकेले तू समेटा करती थी मेरी माँ
आज मेरे बच्चे जब वही दोहराते हैं, तो तेरी तकलीफ़ अब मैं समझ पाती हूँ मेरी माँ
पापा के एक डांट से, दौड़ के आकर तू बचाती थी मेरी माँ
अब, जब किसी से डांट पड़ती है, नज़रें तुझे ही ढूँढती है मेरी माँ
तेरा रोकना, टोकना और चिल्लाने पे खूब चिढ़ती थी,
पर आज वो ही करती हूँ, तो तेरी हालत समझ पाती हूँ मैं मेरी माँ।