औरत, एक प्रश्नचिन्ह
औरत, एक प्रश्नचिन्ह
औरत आज की हो या कल की या किसी भी दौर की
एक प्रश्नचिन्ह बन कर उभरती है मर्द की पेशानी पे।
हर मर्द के इर्द-गिर्द कई किरदार होते है
माँ,बहन, पत्नी और दोस्त
पर इन किरदारों की पटकथा
यह किरदार नहीं बल्कि मर्द गढ़ते हैं।
कितनी अजीब बात है की औरत चाहे
कितनी भी बुद्धिमान क्यों न हो
पर उसे मापने का पैमाना
आज भी उसकी ख़ूबसूरती है।
हम सिमट के रह गए हैं वजन,
लम्बाई और रंग की इकाई में
जैसे की इंसान नहीं
निर्जीव वस्तु हो हम कोई।
इस समाज में औरतें बेची भी जाती हैं
और खरीदी भी जाती हैं।
तो यक़ीनन उपभोग करने की
वस्तु ही समझी जाती रही होंगी।
इंसानियत को इस से ज्यादा शर्मशार
शायद ही कुछ और कर सके।
और यह परकाष्टा है औरत के दुर्भाग्य की
इस समाज में हम पर चुटकुले बनाये जाते हैं,
और हमें भी हंसना पड़ता है,
व्यंग समझ कर भी नहीं समझे यह दिखाना पड़ता है,
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक बार भी
हम प्रतिकार नहीं करते।
हमारा समाज जो आज बेटी को बेटा कह कर
गौरवान्वित महसूस करता है
उस समाज से एक ही बात कहनी है मुझको
की इस एक वाक्य में ही
आपने सारी सच्चाई बयाँ कर दी।
हम वो नहीं जिसकी आपको तमन्ना है,
पर क्या आप हमें वो समाज दे पाए
जिसकी ख्वाहिश हमें है
ये समाज उतना ही हमसे बनता है जितना आपसे
फिर क्यों मौलिक अधिकारों तक के लिए
किसी को लड़ना पड़ता है।
आज भी यह समाज पितृसत्तात्मक क्यों है,
कभी यह सत्ता औरतों के हाथ में सौंपी भी जाएँगी संदेह है
और छीन कर अधिकार नहीं लिए जाते,
यह कोई रोटी का टुकड़ा नहीं हमारा अधिकार है।
सबसे हास्यादपद तो यह है की कहते हैं औरत
औरत की दुश्मन होती है
और ये सिर्फ मर्द नहीं औरतें भी कहती हैं,
इस कथनी को अब हमें बदलना है।
हर इंसान शक्ति चाहता है और
औरत का तो दूसरा नाम ही शक्ति है
फिर ये शक्ति किसी से माँगनी क्यों पड़ती है,
जब मातृत्व की बात आयी,
ईश्वर ने भी हम पे भरोसा किया तो फिर
क्यों खुद हमें भरोसा उधार लेना पड़ता है।
माँ बेटे को क्यों नहीं समझा पायी कि
वो घर में उतनी स्तिथि में है जितने की पिता।
हम जिस समाज को बदलना चाहते हैं
उसकी शुरुआत हम अपने पिता,
पति भाई या बेटों से क्यों नहीं करते।
उन्हें बौद्धिक स्तर पर ये बात समझनी होगी,
कि हमें सिर्फ घर की इज़्ज़त कहने से अच्छा,
हमें वाकई में वो इज्ज़त दी जाए जिसके हम हक़दार है।
हमारा हर एक किरदार खूबसूरत है,
हम हर किरदार को बखूबी निभाना जानते हैं और
यह बिलकुल न्यायसंगत नहीं होगा अगर इन में से किसी को भी एक दूसरे से कमतर देखा जाए,
हमारे आगे चलने से अच्छा हमारे साथ चलिए शायद हम एक दूसरे को बहुत कुछ सीखा सकते हैं ,
अच्छा तो यह हो की हम ज़िन्दगी की जंग आपस में नहीं ,बल्कि एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर लड़ें |