बेटी से बहू का सफर
बेटी से बहू का सफर
सभी अपने से लगते थे कभी मुझे,
शायद कोई भी ना पराया था।
बेटी बनकर राज किया था मैनें भी,
और अनगिनत सपना सजाया था।
नादान थी उम्र खुशियों के साथ और,
माँ बाप ने मुझे पैरों पर खड़ा किया।
सपनों का मतलब सिखा दिया और,
उड़ान देकर उनकों बहुत बड़ा किया।
कौन कहता है वक्त एक सा होता है,
उम्र का दौर बड़ा ही बेहिसाब है।
बेटियां तो बनी हैं पराये नाम पर
जहाँ शादी सबसे बड़ा रिवाज है
बेटी से बहू बनने चल पड़ी मैं,
और सभी सपनों का कत्ल हुआ।
बस कुछ इस तरह से ही समझों,
जिंदगी का नया सफर शुरू हुआ।
रिश्तो में नई नई जिम्मेदारियां आयीं,
सपनों को नये मोड़ पर लाना था।
किस्मत एक नया रंग लेकर आयीं,
पर सब समझौते का बहाना था।
घरवाले ही कहने लगे अब कुछ यूँ
बहू का घर से बाहर जाना सही नहीं।
संभालो जिम्मेदारियां सिर्फ घर की क्योंकि,
बेटों के अलावा कोई और कमाता नहीं।
एक एक करकर सपनों की हत्या हुई
और वो हत्यारे भी मेरे ही अपने थे।
संदूकों में कैद है वो कागज के टुकड़े
जिनमें बसाये जिंदगी की सारे सपने थें।
बेटी बनी ही थी मैं कन्यादान के लिए,
बहू बना दिया गया बलिदान के लिए।
खुद का अस्तित्व आज तक मिला नहीं,
और हंसकर कहतीं हूँ कि कोई गिला नहीं।