पगली
पगली
सूखी सर्द हवाएँ
पतझड़ के पत्तों की भांति
उड़ा ले जाती है उसकी जुल्फ़े
थपेड़ो सी गाल पर
उन्मुक्त, मदमस्त
थप-थपा जाती है
पत्थर से लग कर
ओटे से झाँकती पगली
दूर साँझ ढले
गाँव की ओर ताकती है
किसी भाग्यवान बेटी के
ब्याह की गीत
गौर से सुनती
बिदकती, फिर
सुन्न हो जाती है
इसी तरह इक दिन
सज-धजकर
गाजे-बाजे के संग
ब्याह ले जायगा
उसका दूल्हा
माई-बाबू को छोड़
दूर पिया के घर
जाएगी
वो भी इक दिन
जंगल, बिहड़, तालाब छोड़
सारे पेड़ो से मुहँ मोड़
पराई हो जायेगी इक दिन
फूलों की, पत्तों की माला
पहन इतराती है
संवार अपना साँवला रूप
आकाश निहारती है
फिर बिदाई के गीत सुन
रो पड़ती है पगली
ब्याह से पहले बिदा किया
बैठी सोचती है पगली
कितने दूल्हे बने
रौंद डाला था शरीर
कौन कहाँ बाबुल था
मर गया सबका ज़मीर
धीमी चूल्हे की आँच
की तरह सुलगती मन ही मन
जो था सब दह गया
व्यथा अपनी कहती मन ही मन
बचपन की तरह अब
और कुछ याद ना था
होश उड़ गया कहीं
और कुछ साथ ना था
आहिस्ता-आहिस्ता संतोष करती
ये जंगल ही जीवन है
गाँव, पनघट, साथी सब छुट गए
ये पशु-पंछी ही जीवन है
फिर सूखी सर्द हवाएँ
मादक लोरियों की भांति
सिमटा जाती है उसकी जुल्फ़े
थपेड़ो सी गाल पर
माँ सी, बहन सी
थप-थपा जाती है
पत्थर के ओट से लग कर
फिर सो जाती है पगली
दुनिया की, लोगों की बातें भूल
खुद में खो जाती है पगली।