वाइज़ और मैं…
वाइज़ और मैं…
दिल की बात कह दूँ उन से, वो ताब अपने में ला ना सका
कोशिश कर ली लाख मगर उनको कभी मैं भुला ना सका !
तजुर्बों की कोई कमी नहीं, क़िस्से-अफ़्साने भी काफी थे...
दुनिया तो सुनना चाहती थी बस मैं ही कभी सुना ना सका !
ख़्वाबों की अब क्या बात करें, चाहत का क्यों अब चर्चा हो
सपनों के सच ना होने की ज़िद आँखों को समझा ना सका !
काम मुकम्मल किये बहुत… कुछ मुश्किल थे तो कुछ आसाँ
होश ठिकाने, दिल क़ाबू में… लेकिन कभी भी आ ना सका !
कुछ नयी कुछ पुरानी यादें, हर्फ़ बन बन कर बिखरी थीं...
बहा न सका, जला न सका, उन पन्नों को दफ़्ना ना सका !
वाइज़ बुलाये मस्जिद में मुझ को, मैं उस को मैख़ाने में...
दोनों ही धुन के पक्के थे, वो आ ना सका, मैं जा ना सका !