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बचपन की ज़िन्दगानी

बचपन की ज़िन्दगानी

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ज़िम्मेदारियों में ही डूबी रही मेरे जीवन की कहानी,

सबसे खूबसूरत थी मेरे बचपन की छोटी सी ज़िन्दगानी।

 

अम्मी के अपने हाथों से खिलाए क्या पकवान थे,

पापा के कन्धों पर बैठकर देखे तब आसमान थे,

भईया से अक्सर लड़ते रहते हम कितने नादान थे,

दादा-दादी ने लाड-प्यार से पूरे किए अरमान थे,

क्या कहना छोटी बहना का जैसे हो परियों की रानी।

सबसे खूबसूरत थी मेरे बचपन की छोटी सी ज़िन्दगानी।

 

खुशियों की लहरों के साथ चलती अपनी नाव थी,

माझी भी बहुत थे और पतवारें भी बेहिसाब थी,

ना फ़िक्र की लकीरें थी माथे पर, गालें गुलाब थी,

जीवन को सीख देने वाली स्कूल की हर किताब थी,

अनमोल थी वो कापियों में रखी मोर पंखों की निशानी।

सबसे खूबसूरत थी मेरे बचपन की छोटी सी ज़िन्दगानी।

 

इस दुनिया से हटकर अपने में इक अलग सी अदा थी,

मौसम के साथ-२ तितलियाँ भी अपने पर फ़िदा थी,

ना ही मुश्किलों ना ही ज़िम्मेदारियों की ख़बर पता थी,

हर कोई माफ़ कर देता था अगर हो जाती कोई ख़ता थी,

दिल को छूती थी मासूमियत में लिपटी हर चीज़ दीवानी।

सबसे खूबसूरत थी मेरे बचपन की छोटी सी ज़िन्दगानी।

 

तरह-२ के रंगों से भरी पिचकारी सा था वो अफ़साना,

दिल को सब अपने लगते थे ना लगता था कोई बेगाना,

दीवाली के दीपों में सजा रहता था अपना आशियाना,

ख़ुदा का दिया जीवन में सबसे नायाब था वो नज़राना,

वक़्त बीतते-२ होती गई वो हरी-भरी राहगुज़र बेगानी।

 

सबसे खूबसूरत थी मेरे बचपन की छोटी सी ज़िन्दगानी।


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