गज़ल
गज़ल
तुमको फिर अब मैं मनाऊँ कैसे,
पुराने वो लम्हे फिर लाऊँ कैसे !
अरसो का साथ हुआ करता था,
अब तनहा अकेला रह पाऊँ कैसे !
वस्ल-ए-दिल अपना होगा की नहीं,
झूठा दिलासा ख़ुद को दिलाऊँ कैसे !
ज़िंदा ये यादें अगर रह भी गयी तो,
महरूम फिर इनको अब बनाऊँ कैसे !
ज़ुल्म ये कैसा ढा दिया क़िस्मत ने,
बे-खुदी के क़िस्से अब सुनाऊँ कैसे !
अब तो मुकद्दर भी संग नहीं 'सफ़र',
उनको वापस क़रीब फिर बुलाऊँ कैसे !