मृत्यु अवसान
मृत्यु अवसान
1) जीवन-मृग की सरशारी में यह भी नहीं सोचा जीना भी एक कारे-जुनूं है इस दुनिया के बीच और लम्बे अनजान सफ़र पर चल रहा तन्हा पीछे क्या कुछ छूट गया है मुड़के देखने का मोका ही नही दिया...
2) अपनत्व अब कहाँ है? सफ़र — अब कहाँ है? थम गया सब बहता उछलता नदी-जल तरल, जम गया सब — नसों में बर्फ की तरह घुटन से देह की हड्डियाँ सब चटखती है लगातार, अब कौन इन पर मलहम लगाए टूटती साँसों तक? अँधेरे-अँधेरे घिरे जब न कोई पास हो तब तक लहर अब कहाँ एक ठहराव है, ज़िन्दगी अब — शिथिल तार बिखराव है!
3) आज.. जीवन की अपनी पाबंदियाँ हैं.. देह की अपनी तड़प.. अपनी धरा.. और.. जिन्दगी की अपनी ज़रूरत.. मैं अब वहाँ हूँ.. बहती है... प्रगाढ़ता की जहाँ दो नदियाँ जीवन - मृत्यु समय के वेग ने.. भेजा दिया... दिशा बदलने का नारा.. चप्पू ने भी तुरंत किया होगा.. सहमति का इशारा.. ज़िंदगी की मार से.. कविता लिखने लगा हूँ.. ओर मृत्यु में तलाशने लगा हूँ.. मोती और पन्ने..!!" --मोह का मरहम..जुदाई के अल्फाज... ••••• कपिल जैन ••••