मैं...
मैं...
मैं सतयुग
मैं त्रेता युग
मैं द्वापर युग
मैं कलयुग
मैं क्रमशः चरित्रों को धुरी बनाकर
प्रयोजन बना
परिणाम बना
श्रवण मैं
निष्ठा मैं
कांवर मैं
मैं पिता
मैं माता
मैं ध्वनि
मैं दशरथ
मैं तीन की मृत्यु का कारण
मैं विकल्पित श्राप
मैं दशरथ की मृत्यु का कारण ...
मैं कैकेयी की जिह्वा पर मन्थरा बन बैठा
मैं वनवासी हुआ
मैं दशरथ को बेमौत मारकर
भरत का धिक्कार बनकर
कैकेयी का पश्चाताप बना
मैं स्वर्ण मृग
मैं मरीच बना
मैं सीताहरण का द्योतक बना
मैं जटायु
मैं हनुमान
मैं विभीषण
मैं नल और नील
सागर पर सेतु निर्माण करने का
एक एक पत्थर मैं
मैं जीत बना
मैं मृत हुआ
मैं अग्नियुक्त परीक्षा हुआ
मैं लेकर लौटा सबको अयोध्या
मैं धोबी के भीतर उपजा
मैं वाल्मीकि बन लिखता रहा रामायण
मैं करता गया सतयुग का मंथन
राम की मर्यादा का अवलंब बना ...
त्रेता युग बना मैं
राम के देहांत से समाप्त हुआ मैं
द्वापर युग का वस्त्र पहनने को
कृष्ण लीला के लिए आगे बढ़ा मैं ...
कारागृह मैं
देवकी मैं
वासुदेव मैं
मेरा ही अहम रूप कंस
अपने अहम की मृत्यु का
कारण बनने के लिए मैं
क्रमशः सात बार मरा
देवकी की घुटी चीख का सम्बल बना
मैं वासुदेव
मेरे बालरूप को उठाकर
मेरे इस किनारे से
उस किनारे गया
यमुना को पार करके
घनघोर गर्जना
घनघोर बारिश
घनघोर अँधेरे को पार करता मैं
यशोदा के आँगन पहुँचा
नंदबाबा का ह्रदय हुआ
गोकुल मेरा हुआ
मैं गोकुल का
एक एक दिन मैं निमित्त बनने लगा
मैं गोपिका हुआ
मैं राधा
मैं सुदामा
मैं सूरदास
मैं मीरा
मैं रसखान
मैं ऊधो
मैं ... अहीर की छोहरियों के छाछ पर
पूरे चौदह वर्ष नृत्य करता रहा ...
गोकुल छोड़ते हुए
मैं राधेकृष्ण हुआ
अर्थात कंस को मारते हुए
कृष्ण अकेले नहीं थे
हम सिर्फ मैं था
मैं-मैं एकाकार !
मैं कर्तव्यों का सुदर्शन चक्र बन गया
शायद तभी
मैं सबमें होकर भी
उलाहनों से गुजरता रहा
जिजीविषा होकर भी
हर क्षण मरता रहा
कृष्ण के मुख से निःसृत गीता
मैं यूँ ही नहीं हुआ
असहज अर्जुन मेरा ही एक कण था
मैंने अपने ही कण से कहा
"तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो !"
मैं क्या था ?में मैं कहाँ था ?
मैं जन्म ले रहा था ?
या मैं मिट्टी हो रहा था ?
मैं सोहर में था
या मैं विलाप में था ?
मैं रहूँ
इसके लिए मैं मीरा का बावरापन हुआ
लेकिन - वह मैं' में विलीन हो गई
मैं सूर की आंतरिक आँखें बना
लेकिन मैं कहाँ रुक सका यशोदा के आँगन में !
न कदम्ब मेरे पास रहा
न गोकुल
न मथुरा
न रुक्मिणी
मैं तो मेरा ही क़र्ज़ चुकाता गया ...
मैं हस्तिनापुर का भाग्य बना
तो दुर्भाग्य भी बना
मैं कर्ण का सत्य होकर भी
कर्ण का उत्तरदायी बना
मैं मेरे कर्ण को नहीं मारता
तो मैं अर्जुन को सुनाये गीता का अस्तित्व कैसे बनाता
सत्यमेव जयते का उद्घोष कैसे होता !
आह मैं !
मैंने गांधारी के मुख से
मेरे कृष्ण को शाप दिया
मैं अपनी अंतिम मृत्यु का कारण बना
ताकि मैं हो सकूँ - कलयुग !
मैं कलयुग बना
मेरे चेहरे से सतयुग,
त्रेता, द्वापर युग को मिटा रहा हूँ
मैं गलत को सही बना रहा हूँ
सही को गलत
मैं चल रहा हूँ
मैं का आध्यात्मिक
अस्तित्व खत्म करता हुआ
मैं रह गया है सिर्फ रक्तबीज
संहार शुरू है
देखो शुद्ध सात्विक 'मैं' का आह्वान
कब और कैसे होता है !
मैं अन्धकार से
मैं के प्रकाश में कब आता हूँ !