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रेत में से पानी चुन रही हूँ

रेत में से पानी चुन रही हूँ

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मैं रेत में से पानी चुन रही हूँ, 

आजकल एक नई कहानी बुन रही हूँ।

एक पत्थर पड़ा था नदी के पास,

ना जाने कब से बैठा था यूँ ही सूखा उदास।

ताकता था आसमान को या आँखें बंद किये बैठा था,

लगता था की दुनिया छोड़ दिमाग भंड किये बैठा था।

 

एक दिन नदी में बाढ़ आई और पत्थर बह गया,

बरसों से जड़ा उसका आसन एक बड़ी लहर में ढह गया।

नदी के हल्ले से पत्थर नाराज़ हुआ बैठा था,

अपने अकेलेपन से वो बेताज़ हुआ बैठा था।

नदी ने उसे पटका ले जाके इधर-उधर,

बेडौल सा शरीर उसका रहा था अब कुछ कुछ सुधर।

पहले पहल पत्थर बड़ी जोर से टकराता था,

पर अब नदी के साथ बड़े आराम से बहा चला जाता था।

 

उबड़-खाबड़ सतहों वाला पत्थर अब चिकना हो चला था,

और धीरे-धीरे अपने अक्खड़पन को खो चला था।

नदी का वेग मैदान पहुँच के थम गया,

वो बेडौल पत्थर अब रेत बन गया।

 

उसी रेत से आजकल नदी को सुन रही हूँ,

मैं रेत में से पानी चुन रही हूँ।

आजकल एक नई कहानी बुन रही हूँ।

 


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