घूर्णन गति परिक्रमण गति !
घूर्णन गति परिक्रमण गति !
तुम जब जब होती हो साथ मेरे
चित्त की अशुद्धियों का छय होने लगता है
तुम जब जब होती हो दूर तब त्वरित गति से
फैले प्रकाश को अंधेरा अपना आवरण उढ़ा देता है
और मेरे चारों ओर छा जाता है घुप्प अंधेरा
इस मनःस्थिति में दुख ही दुःख पीड़ा ही पीड़ा छा जाती है
मेरी काया के चारों ओर ऐसे में बसंत मेरे द्वार
पर खड़ा दस्तक दे रहा हो तो भी मुझे कहाँ सुनाई देता है
जिस के फलस्वरूप बसंत बैरंग लौट जाता है
मेरे द्वार से और दो गतिओं पर घूमने वाली धरा
घूर्णन गति को त्याग परिक्रमण गति पर अटक जाती है
जिसमे नित्य की जगह वर्ष लगने लगते है
उसे अपना ऋतू चक्र बदलने में तुम ही सोचो
कितना फर्क पड़ता है एक तुम्हारा साथ न होने पर !