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रतजगे-सी हुंकारती रातें

रतजगे-सी हुंकारती रातें

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क्यूँ आती है यह रात

फिर-फिर

कौन बुलाता है 

इस डायन को

कितना कुछ याद दिला कर

रुलाती और भूलने को

बाध्य करती है

यह जानते हुए भी

कि लड़के कभी रोते नहीं।


तुम्हारी

वे रतजगे-सी हुंकारती

हथाई वाली रातें

कितनी छोटी लगती थी,

कितना कोसते थे

इस कलमुंहे सूरज को

क्यों आ टपकता है

यह निगोड़ी

क्या दो दिन अपने घर

शांति से पड़ा नहीं रह सकता!!


खूबसूरत चाँद को

जबरन धकिया देता है पागल

और भी न जाने क्या-क्या

बकते थे ना हम

बातों ही बातों में

न जाने कितनी बार

रच देते थे महाकाव्य


आज भी वे छंद

कितनी मधुर तान सुनाते है

स्मृतियां गुलाबी गाल लेकर

झुका लेती है शर्माते नयन।


अब वह वक्त कहां

तुम भी तब आते हो रे चाँद

जब सूरज सिरहाने आ बैठता है

इतनी व्यस्तताएं ही होनी थी अगर

तो क्यों यह लत लगाई


देखो!

वह रात-रानी भी झुक कर

मुस्कुरा दी अब तो

शुभ-रात्रि की मुद्रा में 


-लड़के कभी रोते नहीं की

दुनियावी मजबूरी से

अबहे आंसुओं को 

कब तलक रोके

मासूम घुटे-घुटे नयन!


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