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अंतस की आवाज

अंतस की आवाज

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दबे पांवों कमरे में आकर जिसने हाथ दबा दिया था

उसके कुकृत्य ने मेरा स्वाभिमान घटा दिया था।


जब बोलना चाहा तो समाज ने बोलने न दिया

जब रोना चाहा तो परिवार ने रोने न दिया।

खुद को जब मैंने छलनी महसूस किया।


तो किसी ने चीखने-चिल्लाने भी न दिया

तब जिस्म पर घाव गहरे थे,

अब अंतस पर घाव गहरे हैं।


यहाँ कहने को सब अपने हैं,

पर समय पर सब मुख फेरे हैं।

चीर कर रख दिया जिसने चिर मेरा,

वो भटक रहा सरेआम यहाँ।


उसे न डर है, न खौफ है समाज और कानून का

तभी तो हर रोज एक रावण पैदा हुआ यहाँ।


काश, काश किसी ने उसे

समझाया होता फर्क स्पर्श का।

तो आज मैं भी हिस्सा होती

मुस्कान सहित इस समाज का।


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