मंज़िल तक पहुँच ही जाऊँगी...
मंज़िल तक पहुँच ही जाऊँगी...
मत समझना तुम्हारे रोकने से मैं रुक जाऊँगी
जो ठान ली है वो करके तो बेशक़ दिखाउंगी
राह की दुश्वारियों से भला डरता है यहाँ कौन
मंज़िल तक तो एक दिन मैं पहुँच ही जाऊँगी
तुम कभी शूल बनोगे राह का पत्थर भी बनोगे
तुम्हें करके दरकिनार मैं आगे बढ़ती जाऊँगी
क्यों करते हो व्यर्थ में कोशिशें तुम नाकाम सी
मैं वो लहर हूँ जो साहिल तक पहुँच ही जाऊँगी
रात हो कितनी भी लम्बी सुबह होती है जरूर
जो बनोगे तुम अमावस मैं दीपक हज़ार जलाऊँगी
मैं हूँ क्या ये बताने की जरुरत नहीं है मुझको
लिख कर चंद अल्फ़ाज़ मैं अपनी पहचान बनाऊँगी
राहें मुश्किल जो न हों तो मंज़िल पाने का मज़ा कैसा
आहिस्ता आहिस्ता ही सही मैं मुकाम तक पहुँच ही जाऊँगी...।