समाजवादी धर्म
समाजवादी धर्म
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खानाबदोश उत्पादन इकाइयों
क्यों नहीं अपना लेतीं तुम धर्म
धर्म समाजवाद का
कि फ़ैल जाओ हर कोने में विश्व के
देने को सबको रोटी सबको कपड़ा और मकान
भटकती हो सस्ते ख़ून-पसीने की खोज में
कभी भारत, चीन, वियतनाम, कम्बोडिया, टर्की
कभी श्रीलंका, बंगला देश
तो कभी यूरोप के इलाकों में
क्यों बनती हो मेहमान चालबाज़ियों की
देती हो मौक़े एक को
और बाक़ियों को भूखों मरने पर करती मजबूर
लालचों की बनती सहभागी
औरों के हक़ को रौंद
कहीं बेरोज़गारी
तो कहीं कामकाजी हाथों की कमी
जन्मती तुमसे
तुमसे ही पैदा होते गैरदेशियों को खदेड़ने के झगड़े
क्यों नहीं बाँट लेती तुम
अपने-अपने क्षेत्र
कच्चे माल के नज़दीकी भंडारों से विमर्श कर
जिससे बनी रहे दुनिया एक जगह
जो प्रेम जानती हो
जो नफ़रत सिर्फ़ नफ़रतों से करती हो
और प्रेम तब उगता है
जब कोई बस्ती नंगी न रहती हो
जब आँतों में भूख न सोती हो
जब ओस और धूप से बेफ़िकर हों आँखें
जब जातियाँ अनपढ़ न भटकती हो
न मानती हो जो सूरज या चाँद को देवता
न ढूँढती हो बदहाली की बुनियादें
हाथों की लकीरों
और पैदा होते वक़्त के नक्षत्रों में
ओह तुम भी तो मजबूर हो न
कि कहने को तुम्हारे आका आदमी ही हैं
और आदमी आदमी की ख़ातिर
सच्चे धर्म कब अपनाता है
कविता ख़त्म नहीं होती कभी
जापानी नदी की तरह हो रही होती है
ईश्वर तुमसे कितना प्यार करती है दुनिया
और मैं जल जल जाता हूँ