कमल तेरी फ़िजूल कलम से..
कमल तेरी फ़िजूल कलम से..
शीत,सर्द,सर सर हवाओं का दिन
कंपन, करवट करता हर कोई जन ।
व्याकुल,थर-थर है ऊष्मता के बिन
अलाव जलाए,पुलाव पकाए,तृप्त नहीं होता तन ।।
मन,मानुष हर कोई बेचैन सा
किंचित विचार रहा कुछ मस्तिष्क।
मैं तो ऊष्म वस्त्र हूँ धारण किए
उनका क्या जो हैं अल्प वस्त्र शुष्क ।।
पेट की क्षुधा को करें शान्त
कि तन को शीत से बचाते फिरे
या हो गयी आदत मौसम की
अकुलाहट है तो बस पेट कैसे भरे ।।
कहीं पर कुछ कम्बल बँटे हैं
जाने किसके दु:ख शायद छँटे हैं ।
कोई है फिर भी आस लिए
कि उसके वस्त्र अभी तक फटे हैं ।।
शुक्र है कि मौसम सदा एक सा नहीं
अन्त है इस सर-सराहट का भी ।
फिर भी संशय है मन में कहीं तो
झरोखा हो इन चेहरों पर मुस्कुराहट का भी ।।