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एक प्यासा लम्हा रीत गया

एक प्यासा लम्हा रीत गया

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चलते -चलते क्यों लगता है, एक अरसा यों ही बीत गया 
लगता है पानी के घट से ,एक प्यासा लम्हा रीत गया 

झड़ते पत्ते यह कहते है, मौसम का हाल बदलता है 
पर रोज़-रोज़ यों लगता है, सूरज तो पीछे चलता है 

तुम गऐ तुम्हारे साथ गया, उस प्यारे बचपन का आँगन
अब फ़ीका -फ़ीका सा, लगता, जीवन का हर कोई बंधन 

तेरे काँधे पर सर रखकर, हाँ कितनी रातें काटी हैं 
सन्नाटों में यह लगता है यह घड़ियाँ हमने बाँटी हैं 

अब नई कोपलें खिलती है,तो सकुचाता है मेरा मन 
आती है कई बहारें भी ,पर ना जाता यह सूनापन 


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