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क्या ढूंढ़ रहा है मन मेरा

क्या ढूंढ़ रहा है मन मेरा

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अंधेरी गलियो में घूम रहा है मन मेरा.

न जाने क्या ढूंढ़ रहा ये पागल मन.

कुछ सूनी - सी यादों का किस्सा है.

एक पागलपन है ये मेरा.

गली गली ढूंढ़ रही हूँ एक खोए हुए अपने को.


जो कहीं गया ही नही.

बसा है मेरे मन के कोने में.

पागलपन की हद तो देखो.

ढूंढ़ रही जिसे मैं गली गली.

दिल के कोने में ही था वो छुपा हुआ.


ढूंढने निकली जिसको मैं गली गली.

जिसको पाने की धुन में मैं मीरा - सी दीवानी हूँ.

जिसने छुआ है मेरे अंतर्मन को.

मेरे रोम रोम में बसा है वो .

वो एक माला है मोती की.

मैं उसका वो धागा हूँ.

अगर मैं टूट गई धोखे से.

तो वो भी बिखर जायेगा.


मैं हूँ एक नदी की लहर.

वो एक विशाल समंदर है.

उसकी हूँ मैं उसकी ही रह जाऊंगी.

अगर साथ छोड़ दिया उसने तो.

जीते जी मर जाऊंगी.

कभी न बदलेगी मेरी चाहत.

तुम जगमगाते से दीपक हो.

मैं लौ हूँ उस दीपक की.

एक दिन बुझ जाऊँगी.

न बदलेगा मन मेरा न बदलेगी चाहत ये.


तुम कल भी मेरी चाहत थे .

तुम आज भी मेरी चाहत हो.

ये समय का फेर है.

जो कभी न बदलेगा.

मेरी चाहत का कोरा पन्ना.

क्या फिर से कोरा रह जायेगा.

मैं कल भी बहुत अकेली थी.

क्या मैं कल भी अकेली हो जाऊंगी...।


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