रुकना नहीं मुझे भले याँ छाँव घनी है
रुकना नहीं मुझे भले याँ छाँव घनी है
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रुकना नहीं मुझे भले याँ छाँव घनी है
धूप की छतरी मेरे सर पे जो तनी है
ये कम नहीं उसने मुझे देखा है फ़लक़ से
जब-जब कभी धरती पे मेरी जाँ पे बनी है
मिल भी नहीं पाया उसे चाह कर भी कभी मैं
लगता भी नहीं है मेरी चाहत में कमी है
दरिया है लबालब, हैं मगर ख़ुश्क किनारे
सूख़े हों कोर जैसे के, आँखों में नमी है
कोशिश भी करें, बन्द नहीं होगी कभी वो
जन्मों से खुली है जो, मुहब्बत की गली है
क्या काम है इस वक़्त भला जाम से बढ़ कर
मुश्किल से कहीं जा के तो ये शाम ढली है
होगी न जाने कैसी अभी आने जो वाली
जो बीत रही है घड़ी साहिल वो भली है।