औरत
औरत
दिन की रोशनी बच्चों के ख़्वाबों को,
सजाने में गवाँ दी !
रातों की नींद, बच्चों को,
सुलाने में गवाँ दी !
जिस घर के सामने,
मेरे नाम की तख़्ती भी नहीं,
ताउम्र उसे सजाने में गवाँ दी !
जब चाहा रबर स्टैम्प बना दिया,
जब चाहा मौन स्वीकृति में गर्दन हिलवा दी !
कागजों में नोमिनी बनाकर सोचते हैं,
फर्ज़ अदा कर दिया !
जिसकी ताउम्र खिल्ली उड़वाने में लगा दी !
जिसकी कोख़ के दम से किलकारियाँ बन,
घर - आँगन चहकता है,
लड़की होने पर, उसी ने ताउम्र,
मनहूस कहलवाने में गवाँ दी !
लक्ष्मण की लक्ष्मण - रेखा ने,
मर्यादा की ऐसी सीमाओं में बाँधा,
बंधन की सीमाओं को जो लांघा,
पुरुष के पुरुषत्व ने ऐसा रौंधा,
ताउम्र कुलटा कहलवाने में गवाँ दी !
औरत हूँ मैं, ज़नाब मैं भी जानती हूँ,
अपनी शख़्सियत को पहचानती हूँ !
तेरी औकात क्या है के,
नश्तर कुछ यूँ चुभोते रहे,
ताउम्र घुट - घुट कर जीने में गवाँ दी !
पिता की नसीहत,
डोली पर जाकर अर्थी पर आना !
माँ की हिदायत,
उल्हाना मत दिलवाना !
भाई ने कहा,
बुज़ुर्गों की नाक मत कटवाना !
पति ने कहा,
अपनी हद में रहना !
हद के भँवर में,
कुछ ऐसी उलझी,
ताउम्र "शकुन",
खोखले रिश्तों को,
निभाने में गवाँ दी !