क्या खोया, क्या पाया ?
क्या खोया, क्या पाया ?
कभी - कभी सोचती हूँ,
क्या पानी में तैरती मछली भी
कुछ खो सकती है?
और अगर खोती भी है,
तो अपनी ज़िन्दगी से कुछ सवाल क्यों नहीं करती है ?
कभी - कभी यूं ही लगता है,
पूछूँ कुछ सवाल जब दिखे
मेरा खुद का साया,
पर डर लगता है ज़िन्दगी यूं ही न बीत जाये सोचते हुए,
क्या खोया और क्या पाया ?
जीवन के यथार्थ में बहुत कुछ है खोया और पाया,
पर क्या इसी को कहते हैं जीवन की असली माया,
हर किसी के जीवन की कुछ न कुछ कहानी होती है,
कभी खोना कभी पाना ही,
असल ज़िन्दगी की निशानी होती है !
कभी हम खोने को मृत्यु से, पाने को जीवन से जोड़ बैठते हैं,
कभी इस भ्रम में खुद ही को खुदा से तोड़ बैठते हैं,
जोड़ ; तोड़ की इस प्रवृति ने हम सबको है भरमाया,
इसलिए मेरा प्रश्न अब तक अनुत्तरित है -
"क्या खोया और क्या पाया...?"