अपनी माँ को तरसती हूँ
अपनी माँ को तरसती हूँ
दो रोटी गर्म-गर्म फूली हुई सी
आज भी जो मिल जाये
तो मैं दौड़ी चली आऊँ,
दो कौर तेरे हाथों से
खाने को जो अब मिल जाये,
तो मैं सब कुछ छोड़ आ जाऊँ।
तेरे हाथों की चपत खाने को
अब तरसती हूँ मैं,
तेरी मीठी फटकार खाने को
अब मचलती हूँ मैं,
बहुत याद आती हैं हर डाँट तेरी,
वो झूठा गुस्सा शरारतों पर मेरी।
वो हाथ पकड़कर लिखवाना,
कान पकड़ घर के अंदर लाना,
वो घूमती आँखों के इशारे तेरे,
भृकुटियाँ तन जाने तेरे,
मुझको परी बनाकर रखना,
मुझमें खुदको ही खोजना।
मुझे खिलाना और नहलाना,
पढ़ना और लिखना सिखलाना,
कलाओं की समझ देना,
अच्छे बुरे का ज्ञात कराना,
मानविक प्रवृतियों को जगाना,
प्रेम प्यार का पाठ पढ़ाना।
खाना बनाना,
कढ़ाई करना,
स्वेटर बुनना,
बाल बनाना,
पेड़ पर चढ़ना, दौड़ना भागना,
सब कुछ तेरी ही भेंट माँ।
चुन-चुनकर कपड़े पहनाना,
रंग बिरंगे रिबन लाना,
गुड़ियों के ढेर लगाना,
किताबों के अंबार सजाना,
कितनी ही कहानियाँ मुझसे सुनना
और मुझको भी ढेरों सुनाना।
काश बचपन फिर लौट आये,
मेरे पास फिर से मेरी माँ को ले आये,
जिसकी गोद में घन्टों घन्टे,
पड़ी रहूँ आँखें मूंदे,
प्रेरणा की तू मूरत मेरी,
क्यों छिन गयी मुझसे माँ गोदी तेरी?
आजीवन अब तुझ बिन रहना है,
फिर भी दिल मचलता है,
भाग कर तेरे पास जाने को,
तुझको गले से लगाने को,
हर पल तुझको याद मैं करती हूँ,
माँ हूँ, पर अपनी माँ को तरसती हूँ ।।