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मयख़ाना

मयख़ाना

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नींद न आये रातों में मयख़़ाने का रुख़ करते हैं,

रात सुलाना भूल जाए तो नींद को ढूँढने चलते हैं। 


दोस्त कहूँ हमराज़ कहूँ अकेलेपन का साथी है,

बूँद चुल्लू भर पीते ही गम मोम बन पिघलते हैं।


दिल में छुपे एहसासों को दोस्त से साझा करके, 

मरहम कुछ लगाकर ज़रा जख्म दिल के भरते हैं। 


साकी को मालूम नहीं हम नहीं पीते है उसको,

पीती है वो हमको तब गम अश्क बन छलकते हैं।


मयखाने से बढ़कर कोई ज़मीन नहीं यहाँ पर,

दिल के सारे नश्तर मानों आकर यहाँ उभरते हैं।


दो जाम काफ़ी है भैया गम की नींव हिला दो,

माशूक की आँखों की मानिंद नशे में बहकते हैं।


कदम हमारे ड़गमगाते कहलाते भले शराबी,

पर यकीन मानों भावना ज़मीर से ना गिरते हैं।


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