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विभावरी में खिली कोंपल

विभावरी में खिली कोंपल

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विभावरी में खिली कोंपल

देख आसमान को, मुस्कुरा रही थी;

मासूम आँखों से ऊपर ताकती,

सब रंगों को देख, अपनी हरीतिमा पर इतरा रही थी

धरती की इस छेड़ -छाड़ पर

रीझ गया आकाश भी

कहा-सुना कुछ भी नहीं

न बुलाया अपने पास ही

बस देखा भर कोंपल को,

भाव शून्य आँखों से

कोंपल न पढ़ सकी इस नज़र को,

रूठ गई आकाश से।

नादान थी, जो समझ न पाई

कि आकाश का झुकना संभव न था

सहलाया उसने दृष्टि से,

न कर सका कुछ अन्यथा

छोड़ दी एक ओस की बूँद

कोंपल के दामन पर

जब तक न पिघली, सजी रही

कहती रही आकाश की अनकही

पिघली, तो कोंपल में समा गई

लिऐ अंश आकाश का, बस धरती की हो रही।

 


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