अस्तित्व
अस्तित्व
पतझड़ के कुछ बिखरे पत्ते
टकटकी बांधे मुझे निहारते है
मानो मुझसे अपनी व्यथा कहते
या शायद मुझसी ही वेदना रही उनकी
जो पेड़ से बिछड़ कर, एकांत में
अपना अस्तित्व खोजते
दिन ब दिन मुरझाते जाते है
अभी यही कल तक
हरे-भरे पेड़ पर
शान से लहराते थे
और अभी आज
जीवन व मृत्यु के बीच
झूलते,असमंजस में पड़े
राहगीरों को निहारते है
कभी पैरो तले रौंदे जाते
तो कभी हवा में मजबूर उड़ जाते
फिर निःशब्द,धीमे-धीमे
उसी मिट्टी में मिल जाते
पर क्या पेड़ से बिछड़ कर भी
है उसका अस्तित्व?