कुछ छिपा सा
कुछ छिपा सा
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कुछ आँसू दिखते नहीं
बहते रहते हैं
अंदर
दरिया बनकर
कुछ ज़ख्म नजर नहीं आते
रिसते रहते हैं
भीतर कहीं
नासूर बनकर
कुछ पीड़ा आँखें छिपा जाती हैं
पर सालती रहती हैं
मन को
उम्र भर