सुबह की सिहरन
सुबह की सिहरन
गई रात देर तक जागती आँखें
ख़ुद से अधिक मुझ पर तरस खा रही थीं
खुलना चाह रही थीं पर
मेरा ख़्याल कर बंद थीं और
अलसाई पड़ी थीं
सुबह हो चुकी थी
मगर मैं अपने कमरे में सोया था
ख़ैर!
सुबह की सुबह कब की हो चुकी थी
और उसकी रंगत की आहट
क्रमशः मेरे कमरे में भी
आनी शुरू हो रही थी
अलसाई आँखों ने दुनिया देखनी चाही
और मैं उन्हें मना न कर सका
मैं आँखें मलता हुआ दरवाजे की ओर बढ़ा
देखा
सूर्य अपनी सुनहली किरणों के साथ
मेरे स्वागत में खड़ा है
अपनी रक्तिम मुस्कान से मुझे अरुण
किए जा रहा है
एकदम से
मेरी तबीयत में उछाल आ गया
और यह क्या
एक सूर्य के अस्तित्व की कौन कहे,
मेरे शरीर का रोम-रोम
एक स्वतंत्र सूर्य बन गया
एक तरफ
इनके ताप से जलता रहा
दूसरी तरफ़
अपने ऐसे वजूद से
मैं स्वयं सिहरता रहा
सिहरता रहा|
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