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सफ़र

सफ़र

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मेरा सफ़र  

जहां से शुरू हुआ,

वृक्षोंं की हरियाली में,

हवा का विचरण शुरू हुआ,

जैसा जाना, वैसा पाया,

वृक्षों की डाली को,

कहीं लदी, कहीं सूखा पाया,

कहीं वृक्ष विरल, तो कहीं सघन पाया,

पक्षी ऐसे चहक रहे थे,

जैसे मैं रहता था,

पानी की धारा की हलचल

भी जानी पहचानी थी,

लोगों के दुख में व्याकुल,

और खुशी में हंसता पाया,

मानव संवेदनाओं में, मैंने

कहीं न कोई परिवर्तन पाया,

हाँ कहीं घने थे साधन,

कहीं उनका अभाव है पाया,

वस्त्र वही थे, थोड़ा-सा,

बस रूप बदलता पाया,

आस्था और विश्वास,

हाँ, ढंग में भिन्नता, पर

मर्म को एक ही पाया,

मुझको जो धरती की सीमाएं बतायीं गई थी,

पर सच में उस सीमा को,

कागज़ से बाहर निकाल न पाया,

जैसी भिन्नता मुझे, बतलाई गई थी,

उसको तो मैं खोज न पाया,

कहीं घटा थी, कहीं था उजाला,

वही आकाश को हर जगह पाया,

कितनी भिन्नता मुझे बतलाई गई थी,

कितने हिस्से, कितनी सीमा,

पर जो मैंने देखा,

एक ही धरती, एक प्रकृति,

एक गगन, एक ही मानव

मैं तो इसमें भिन्नता ढूंढ न पाया

संग खेल के बड़े हुए जो,

संग उन्होने चलना सीखा,

नाम अलग बतलाए गए थे,

वेश अलग हो, रूप अलग हो,

पर क्या थी उनके लहू में भिन्नता,

उसको तो में खोज न पाया,

कभी उठे जो खंजर, कहीं उठी तलवारें,

पर जब संकट मेंरे देश पर आया,

हर खंजर पर, हर तलवार पर,

रक्त मैंने शत्रु का पाया,

मुझे जो भिन्नता बतलाई गई थी,

उसको तो में खोज न पाया,

इस कोने में या उस कोने में,

हाँ, अभिव्यक्ति में भिन्नता को पाया,

कहीं फूल, कहीं वो खत था,

कहीं शब्द, कहीं वो चुप था,

पर सार प्रेम का एक ही पाया,

मिलन की रसता, विरह की वेदना,

चेरहे के खिलते मोती, अनंत अश्रु की धारा,

प्रिय–प्रियतम को संयोग में हँसते,

विरह में व्याकुल पाया,

क्या इधर प्रेम में, या उधर प्रेम में,

क्या थी भिन्नता,

मैं तो उसको खोज न पाया,

हाँ कहीं पुष्ट थे कंधे,

कहीं किसी को दुर्बल पाया,

दर्शाने में उग्रता और करुणा में थी भिन्नता,

पर हृदय उनके भावों को एक ही पाया,

मुझको जो भिन्नता बतलाई गई थी,

उसको तो में खोज न पाया,

जनने का, हाँ पलने का, चरण वही थे,

कहीं सरलता, कहीं जटिलता को पाया,

बचपन, यौवन और बुढ़ापा,

सबको इसी काल में, विचरण करते पाया,

उनको बचपन के भोलेपन में,

यौवन की भरपूर उमंग में,

और ज़रा की विवशता में,

थी क्या कोई भिन्नता?

मैं तो उसको खोज न पाया,

मेंघो ने भी जब जल बरसाया,

या सूर्य किरण की आभा आई,

सरस चाँदनी नभ पर छाई,

ये तो धरती की रचना है, चाँद, सूर्य और मेंघों में,

मैंने कोई दोष न पाया,

एक ही जल, एक ही आभा, एक चाँदनी,

मैं तो उसमें भिन्नता खोज न पाया,

जो भी भिन्नता मैंने पायी,

स्वार्थ कहूँ या कहूँ कुछ और,

मानव की ही रचना मेंने पायी,

जब रचयिता ने न दी कोई भिन्नता,

फिर मानव क्यूँ इसको तू ले आया,

मैं तो कोई भिन्नता खोज न पाया,

मेरा सफर, हाँ, विराम हुआ,

यूं तो पन्नो की सीमाए बदली,

न जाने कितने मानव रचे मानव से मैं मिल आया,

पर जो भिन्नता मुझे बतलाई गई थी,

उसको तो मैं खोज न पाया।


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