माँ का डाँटना
माँ का डाँटना
नातिन ब्यष्टि, मिष्टी का
खेलकर देर से आना
मम्मी का डाँटना, खाना न देना
फिर नानी द्वारा
मनाना, खाना देना
इन बातों ने मुझे
मेरे बचपन की
यादें ताज़ा कर दी
कभी-कभी बचपन मेंं
मैं भी खेलने के बहाने
मोहल्ले में घंटो
चला जाता था
दोस्तों के साथ
पतंग उड़ाता था
काफी देर से पतंग
उड़ाने के बाद खेतों की
तरफ दोस्तों के साथ
निकल जाता था
खट्टे-मीठे बेर भी खाकर
मौज मस्ती करते दो चार
घंटो में वापस आता था
घर आने में माँ डांटती
एक थप्पड़ भी मारती
फिर खाना भी नहीं देती
मैं तो डरा सहमा कोने
में जाकर बैठ जाता था
माँ के द्वारा मनाने
का इन्तज़ार करता
भूख के मारे बुरा हाल होता
घंटा आधा घंटा बाद
माँ मेरे पास आती
मुझे मनाती पुचकारती
फिर हाथ मुँह धुलाकर
खाना खिलाती
बचपन की बो यादे
ब्यष्टि, मिष्टी की इस
घटना से याद आती है
माँ का वह डाँटना
फिर पुचकारना
बिलकुल सही था
मेंरी लापरवाही का
यही तोहफा था
नातिन मिष्टी की डांट पर
आज मुझे तरस आ गया
बच्चो का मन ऐसा होता है
खेलने में डांट भले ही
पड़ जाए मन नहीं भरता है
बचपन तो बचपन ही होता है
मौज मस्ती बिना अधूरा होता है।