कूढ़े वाला आदमी
कूढ़े वाला आदमी
वह आदमी
निराश नही है
अपनी जिन्दगी से
जो सड़क के किनारे लगे
कूढ़े को उठाता हुआ
अपनी प्यासी आँखो से
कुछ ढूंंढ़ता हुआ
फिर सड़क पर चलते
हंसते खिलखिलाते
धूल उडाते लोगो को टकटकी
निगाह से देखता
फिर कुछ सोचकर
अपनी नजरे
दुबारा अपने काम पर टिका लेता
शायद ये
सब मेरे लिए नही
वह सोचता है
आखिर कमल को हर बार
कचरा क्यों मिलता है ?
वह आदमी
दौड के उस कूढे को उठाता
जैसे उसे ईश्वर का
प्रसाद मिल गया हो !
जैसे तालाब के किनारे
कमल खिल गया हो
फिर सड़क पर लोग नही है
प्लास्टिक के थैले नही है
आैर चल देता है
दूसरे कूढ़े की आेर...
शायद अपनी किस्मत को कोसते हुए
बस यही है मेरी जिन्दगी...!