सफ़र
सफ़र
है ग़ज़ल में ऐसी क्या कशिश,
मुझे हैरान कर जाती हैं।
क्या स्वप्न हैं ये कविताएँ भी,
मुझमें ही वो खो जाती हैं।।
मैं खुद को ढूंढती रहती हूँ,
वो मुझमें ही समा जाती हैं।
है शायराना हर मिज़ाज यहाँ,
मेरे होश उड़ा ले जाती हैं।।
कहीं ठहर कर ढूंढ लूँ मैं,
इन वृक्ष में उन कविताओं को,
ग़ज़ल गाती इस नदी में,
शायराना इन हवाओं को।।
ये सोंधी मिटटी की खुशबू,
लेकर चली मुझे है कहाँ।
ये सोने जैसे सुनहरे बीज,
मैं बैठी बेसुध - सी यहाँ।।
न लफ्ज़ उनके पास हैं,
न शब्द बाकी अब मेरे।
गर ये ग़ज़ल, ये शायरी, ये कवितायें,
बैठी रहीं मुझको यूँ घेरे।।
है सूर्य ही बन बैठ अब राजा,
देख रहा मुझे दूर तलक से।
मैं सहमी - सी उसे झाँक रही,
दूर कहीं अनजान सफ़र पे।।