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बेदर्दी फ़ितरत

बेदर्दी फ़ितरत

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मुरझा रहे थे फूल

उन सहमे पत्तों की तरह

सिसक रही थी कलियाँ

कैकशी में जराह जराह


फुट फुट के रोना तो

शाम भी जानती है

अघोष में आकर किनारे

सरिता भी सहम जाती है


मुझे बड़ा ताज्जुब है

क्यों ये घटायें सुन्न पड़ी है

बादल की परछाई

धुँधली धुँधली लग रही है

कैसी सहिष्णुता है बेख़ौफ़ सावन की?

कुछ काला गरज रहा है आसमा के मयखाने में

उमड़ उमड़ के कुछ छल रहा अब बादल में

दर्द उभर रहा ख़ौफ़ लेकर सीने में


थी कभी एकात्मता की बातें

पंछी झरने रोज़ मिलने आते

सावन झूम झूम के हँसता

और झरने झिलमिल गाते


मगर कोई ख़ौफ़ लेकर आया है

भिन्नता को लेकर आग लहू बन सताया है

विचित्रता अब कितनी भर आयी है

कल की स्वतंत्रता अब छुपी छुपायी लगती है


ये बेबसी कहाँ से चुरा ले आये हो

मानव जैसे तुम भी सताये लगते हो?

बेदर्दी तो उनकी फितरत बन चुकी है

तुम कहाँ से गिरहबान को गिरवी छोड़ आये हो?


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