शीशा
शीशा
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एक अंतराल के बाद देखा...
माँग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है...
कल अचानक हाथ काँपे...
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली,
और पैर थक गए।
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो...
देहलीज़ से पुकारना, अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हर रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते...
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो...
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती...
पर कुछ साबित नहीं रह जाता.....
और यह कमजोरी,
यह गड्ढे,
यह अवशेष
जब सतह पर उभरे...
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी...
और तुम उस शीशे को
फिर कभी न देख सके!