प्रिय ऐसा क्यों
प्रिय ऐसा क्यों
उर, तेरे जब पीर है देखी
नयन मेरे भर आए क्यों
मेरी चिंता की रेखाएँ
तेरे ललाट पर आए क्यों।
क्यों मेरी मुस्कान तेरे
अधरों पे खेला करती है
तेरी नज़रों की चंचलता
मेरी आँखों में छाए क्यों।
क्यों मेरा सामिप्य तुम्हें
मधुरिम सुख की अनुभूति दे
सानिध्य तुम्हारा निश्चल ये
मेरे अंतस को भाए क्यों।
तुमसे एक दिन की भी दूरी
क्यों सदियों सी लगती है
और मुझसे थोड़ी दूरी से
हृदय तेरा अकुलाए क्यों।
दो हृदय एक ही डोर जुड़े
तन, प्राण एक बन जाए क्यों
कहने को तो, एक बंधन ये
मन हर्षित बंधना चाहे क्यों।।