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जद्दोज़हद

जद्दोज़हद

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वो काली अँधेरी
जेल सी कोठरी
सूक्ष्म जीव
इत्मीनान से
पर यहां भी
जीवन की जद्दोज़हद जारी
नहीं सुनी किसी ने
हिचकियां
चैन लेने न दिया
दुश्मनों
किया प्रहार
मिलकर नश्तरों
वह ऊपर कभी नीचे
वह दायें तो बायें
चीखी-चिल्लाई, भागी औ दौड़ी
पर नहीं काम आई
सिसकियां
बेबस सी जान
टुकड़े-टुकड़े हो
तजे थे प्राण
जीवन से पहले
गिरी बिजलियां
ये कैसा मुक्कदर
बनाया विधाता
गर बदलता तू
मेरी पहचान
वो करते सभी
स्वागत-सम्मान
हसरतों के ताल में
तैरतीं मछलियाँ।



2. वज़ूद

हाथों कंगन
पैरों पायल ,बिछुए
कमर कटिबंध
नाक में नथनी
सर पर झूमर
गले में हार
पूरा सोलह सिंगार
मेरे हर अंग को
सजाया-संवारा
मेरी सोच को
इनका बन्धक बनाया
मेरी सुंदरता पर
नई-नई उपमाएं दीं
गर्दन सुराही
होंठ गुलाब पँखुड़ी
नागिन सी चाल
मृग-नयनी
झील तो कभी
समन्दर बताया
यानी जीती जागती
सजावट की मूर्ति
पर इन आँखों में
पलने वाले ख़्वाब
कब और किसने देखे
मेरे वजूद को
कब समझ पाया
ये पुरुष समाज।


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