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ग़ज़ल – होता गया

ग़ज़ल – होता गया

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सबकी सुनकर मैं परेशां और भी होता गया,

याद कर गुज़रा ज़माना और भी रोता गया | 

पाँव थककर चूर थे और रास्ते बेनूर थे,

मंजिलें मकसूद की मानिब मगर बढ़ता गया | 

है बहुत छोटा सा जीवन फूल को मालूम है,

फिर भी नादां बाग में हर रोज़ वो खिलता गया | 

“ हाल है कैसा तुम्हारा " उसने पूछा एक दिन,

सुनता रहा वो कान देकर और मैं कहता गया |

 

राह चलते जो मिले सभी हमसफर होते नहीं,

फिर ना जाने हाथ किसका थामकर चलता गया |

 

चंद दिन बस साथ रहकर दाग़ जो तुमने दिए,

आंसुओं को गंगा समझ उस दाग़ को धोता गया | 

मेरी आहें दिल में दब कर एक दिन ज्वाला बनी,

साँस लेते लेते उसमें रात दिन जलता गया | 

 

सब से रिश्ते तोड़कर मैं पास अपने आ गया,

कौन सी उम्मीद में ये दर्दों-गम सहता गया |


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