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छाले

छाले

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माँ आँतों में छाले पाले

जाने कैसे जीती रही बरसों

हथेली में उगाती रही सरसों

हम रहे आये अनभिज्ञ

उसकी खामोश कराहों से

दर्द फूलता रहा खमीर सा

वो चढ़ाये रहती

खोखली हँसी की परतें

माँ का ज़िन्दा होना ही

आश्वस्ति थी,हमारी खुशियों की

हमारे लिए ही वो

पूजती रही शीतला

करती रही नौरते

भूखी,प्यासी जागती रही सारी सारी रात

और हम जान ही नही पाये

अनगिनत रोटियाँ बेलती माँ की

सूखी हंसी,पपड़ाये होंठों के राज़

उसकी गुल्लकेँ जो

कनस्तरों में,बिस्तरों की तहों में

सुरक्षित और सुनिश्चित करती रहीं

हमारा उजला कल

उगल देती हर बार एक किश्त

हमारे सपनों के लिए

..जब जब भी बाबा हताश हुए

दिन रात सुबह शाम

पृथ्वी सी,अपनी धुरी पे घूमती

रचती रही,मौसमों के उपहार

हमारे लिए

माँ के आशीष पनपते रहे

फूलते रहे,फलते रहे

बनती रही परिवार की झाँकी

कभी चाह और कभी डाह की बायस

माँ जोड़ती रही,तिनका तिनका

हमारे लिए

और खुद रिसती रही बूँद बूँद

दर्द के ज्वार को समेटती रही

ठठा के हँसने में

हम कौतुक से देखते

उसकी रुलाई रोकती हँसी

और फिर भूल जाते

हम नही देख पाये

माँ के अंतर को कोंचते

आँतों के छाले

छले गए उस छलनामयी की

बनावटी हंसी से....

 


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