धुंध
धुंध
सुबह जब घर कि खिड़की खोली
कोहरा मेरे होंठ पर मुस्कान बिखेर गया
किरदार बदल गया जगह बदल गई
पर धुंध कि याद गाँव कि और चल पड़ी
बचपन का कोहरा धुँधलाता नहीं
उस दिन भी गोबर पर पाँव पड़े थे
रिक्शा घंटी बजा रहा था
स्कूल का गेट दिखाई नहीं दे रहा था
और माँ का वो छज्जे से हाथ हिलाना दिख नहीं रहा था
वो कल था जब धुंध में कुछ नहीं दिख रहा था
पर एहसास सब कुछ हो रहा था
ये आज है जब सब कुछ ऊँची इमारत से दिखता ज़रूर है
फिर भी कुछ महसूस नहीं होता
सिर्फ़ एक सुनहरी याद कि धूप इस धुंध को दूर करती है
कोहरा छँट जाता है धूप आ जाती है
गाँव की वो मिट्टी वो कच्ची सड़क फिर भी यादों में रहती है
ओस कि बूँदें आज भी हरे पत्ते पर दिखती हैं
जब ये गाड़ी हॉर्न दे रही होती है
मन से कोहरा कभी नहीं जाता
वो आज भी बचपन लौटा लाता