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अज्ञात

अज्ञात

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इक अज्ञात हो तुम मेरा 

जिसे जान कर भी नहीं जानता मैं 

हर ज्ञात अज्ञात हो जैसे 

तेरे साथ गुजारा हुआ हर लम्हा 

पड़ाव भी है और मंज़िल भी

सदियों भर का पड़ाव और

 क्षण भर की मंजिल तू 

मेरा खुद का ज्ञात भी 

उसी में साँस लेता है 

मुझमें मेरे होने के बावजूद 

मेरा बहुत कुछ अज्ञात है मुझसे 

तुझसे मिलने पर जो 

तड़प के बाहर आ जाता है

मेरा ही मैं मुझको और मैं उसे 

अजनबियों की तरह देखते हैं 

इक तेरी गंध मिला देती है जैसे हमको 

अपनी ही घाटियों में उतरना 

अक्सर मुश्किल तो होता है मगर 

जिनको जाना है बहुत दूर 

उन्हें उतरना ही होता है 

ब्रह्मांड की तरह चेतना को विश्राम कहाँ 

जब कभी मिलती है विश्रांति 

खुद के कहीं होने का आभास होता है 

अपने ही अजनबीपने में ग़ुम

हमकिसी और में खोजा करते हैं खुद को 

एक झलक भी अपनी उसमें दिखाई देने पर 

कितना खुश हो जाते हैं हम

अपने ज्ञात-अज्ञातों में रहते हुए 

अपने ज्ञात-अज्ञात को परिभाषित करते हुए 

खुद अपरिभाष्य रह जाते हैं हम 

खुद से अजनबी रहते हुए 

इक सूदूर यात्रा-पथ के राहगीर हम 

इक अंतहीन अतृप्ति से प्यासे हम 

इक याचक की तरह जीते हुए हम 

नहीं जानते कि जीते हैं या मरते हैं हम !!

 


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